Thursday, September 4, 2008

तुम आओ तो.

ताल के पानी की तरह

ठहरी थमी सी ज़िन्दगी

कुछ लहरों की आरजुओं में कंकर तलाशती है

तुम आओ कभी खामोश साहिल पर

अपनी तनहाइयों की मुठी भर-भर

मारो मुझ में कंकर पत्थर

एक लहर बिछा दो सीने पर

मार के अपनी एड़ी

कुछ बूँद सजा दो माथे पर

झिड़क के अपनी पायल को

शोर मचा दो साहिल पर

तुम आओ तो कभी

इन सुनसान किनारों पर

ठहरी थमी सी ज़िन्दगी की

रगड़ के अपने पैरों से

पीठ खुजा दो ..बस

तुम आओ तो कभी .........

Tuesday, April 1, 2008

निवेदन

तुम दो स्पंदन मेरी कलम को शब्दों को दो प्राण प्रेम की मंद मघुर लय दो
कर पाऊं कुछ मेरी रचना जीवन हो साकार ज्ञान का ऐसा एक वर दो
तुम दो स्पंदन मेरी कलम को शब्दों को दो प्राण प्रेम की मंद मधुर लय दो

कुसुम सुमन से जो कुछ पाया कंटको ने छिना सारा
रचना व्यर्थ ना जाय तिहारी जन्म सफल कर दो

तुम दो स्पंदन मेरी कलम को शब्दों को दो प्राण प्रेम की मंद मधुर लय दो

मैं तो रहना चाहूँ ऐसे मुक्त रहे जल धारा जैसे
दिख जाय प्रतिबिम्ब स्वयं का निर्मल मन कर दो

तुम दो स्पंदन मेरी कलम को शब्दों को दो प्राण प्रेम की मंद मघुर लय दो

घोर निराशाओ ने घेरी मेरी मंजुल अभिलाषाएं
आशाओं के नभ में मुझ को दिनकर तुम कर दो

तुम दो स्पंदन मेरी कलम को शब्दों को दो प्राण प्रेम की मंद मघुर लय दो

कर पाऊं कुछ ऐसी रचना जीवन हो साकार ज्ञान का ऐसा एक वर दो
तुम दो ..

मैं और तू

मैं तो हूँ जैसे कांसे की हांडी मैं रखा सदा पानी
और तू रे छोरी पुडिया है रंग की
कभी ऐसी तो कर रे नादानी
के घुल जा इस सादे पानी मैं ऐसे
के सब को खू लगे ये पानी
देख ऐसा ना हुआ तो
तू ना रंग पाईमुझे तो
कोई और रंग लेगा मुझे अपने ही रंग में
रोएगी उस वक्क्त बैठी
कहेगी मैं फरेबी था
था मैं बैरी था
मैं तो हूँ जैसे कांसे की हांडी मैं रखा सदा पानी

Monday, March 31, 2008

पहली चोट

खारिज सी लगती है

पहली चोट लोहे पर

खारिज मगर होती नही

पहली चोट लोहे पर

मोम बन जाता है लोहा भी

सौंवी चोट पड़ने पर

ताकत

तनहा उंगलियो को
मुट्ठी की शक्ल में
भीच कर देखो
बाज़ुओ में अपनी तुम्हें
ताक़त का एहसास होगा

Thursday, January 31, 2008

खिड़की मेरी

खिड़की मेरी जिस आकाश में खुलती है
चाँद नही आता उस रस्ते
दूजे किसी आकाश से होकर
राह चाँद को मिलाती है
खिड़की मेरी जिस आकाश में खुलती है


चाँद से भी हो क्या शिकायत
चांद से भी हो क्या गिला
अंतहीन आकाश है

और अनगिनत है खिड़कीया

उस पर बेचारा
सबका प्यारा
एक अकेला
चाँद
कहाँ -कहाँ जाएगा ?
हर खिड़की से होकर गुजरे

ऐसा कैसे हो पायेगा?

ख्वाहिश तो अब ख्वाहिश ही ठहरी
हर खिड़की की होती है
खिड़की जब भी, जिस आकाश पे खुलती है
उस पर जब काली स्याही, धीरे-धीरे घुलती है
हर खिड़की तब बाहें फैलाये ,चाँद की राहें तकती है


अपनी भी एक खिड़की मुई
सूने आकाश में खुलती है
चाँद नही आता उस रस्ते
बुझती-बुझती आंखो में भी
चाँद की आमद रहती है

खिड़की मेरी जिस आकाश में खुलती है


खिड़की मेरी जिस आकाश में खुलती है
चाँद नही आता उस रस्ते
दूजे किसी आकाश से हो कर राह चाँद को मिलाती है

Wednesday, January 23, 2008

सयाना

छुटपन में

जिस मेले से चुराई थी बांसुरी, गुब्बारे

और खिलोने बहुत से

आज उसी मेले से

जी चुराता हूँ

जाने क्यों इतना सयाना हो गया हूँ

कैलेंडर

तारीख़ बदलती

फटता कैलेंडर


दिन,महीना,साल चढ़ आता

फिर एक रोज़

खूंटी में टंक जाता एक नया कैलेंडर

ज़िंदगी बदलती सिर्फ कैलेंडरों में यहाँ

ऐसे क्यों नही बदलती

जैसे मैं बदलना चाहता हूँ

जैसे तुम बदलना चाहती हो


फिर मैं महज़ कैलेंडर बदलने को बेसब्र


उस दिन का इंतज़ार नही करता

जिसे कहती हो तुम.... नया साल !


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