Wednesday, May 20, 2009

मैं और क्राइस्ट.

रात सो रही थी जब दुनिया सारी
मैं था जो बस जाग रहा था ।
अपने गम के साथ ऊँघ रहा था।
रात ये साली घंटा-घंटा होती काली।
कालिख इसकी छुड़ा रहा था।
रात सो रही थी जब दुनिया सारी
मैं था जो बस जाग रहा था।
तभी चर्च की घटी बजी
और क्राइस्ट ने बारह बजा कर कहा जाग रहे हो!
जाग रहे हो तुम भी!
जाग रहे हो! क्या थोड़ा-थोड़ा गम आपस में बाट रहे हो!
मैं भी तो हूँ साथ तुम्हारे जो जाग रहा हूँ।
मैं भी तो हूँ साथ तुम्हारे जो सदियों से ऊँघ रहा हूँ।
रात सो रही थी जब दुनिया सारी
मैं और क्राइस्ट जाग थे
गम आपस में बाट रहे थे ।
मैंने अपने सारे गम तब क्राइस्ट से बदल लिए थे ।



रात सो रही थी जब दुनिया सारी मैं और क्राइस्ट जाग रहे थे।

Monday, May 4, 2009

मर्द

कभी- कभी सोचता हूँ
न होता मर्द औरत ही कोई होता
अब तक तो ब्याह के ले गया होता कोई
.....................
के अपने पैरों पर अपना वज़न अब और ढोया नहीं जाता
खलता है बहुत मुद्दत से बस यूँ होना
अपनी आहों में अपने ही दर्द का रोना
अपनी धड़कन में अपनी ही साँसों का खोना।
खलता है बहुत मुद्दत से बस यूँ होना ।
कभी- कभी सोचता हूँ
न होता मर्द औरत ही कोई होता
सौंप के ख़ुद को किसी के जिम्मे
अपने वजूद से हल्का हो गया होता.
बहुत भारी है ये मर्दानगी का पत्थर दोस्त!
उठाये नहीं उठता जब
रोने को जी चाहता है.
कभी- कभी सोचता हूँ
न होता मर्द औरत ही कोई होता
किसी काँधे पे सारी उम्र का दर्द
सिसक-सिसक के रो देता.
कभी- कभी सोचता हूँ
न होता मर्द......
झूठा है ये मर्दानगी का गुरूर दोस्त!
मर्द हो के क्या पाया हमने?
बदन से उठती महक-ऐ-शराब।
निकोटिन के पानी चढ़े स्याह लब
आँखों में नशे के शुर्ख रंग.
हर तरफ़ धुंध ही धुंध.
मैली आश्तीनें , गन्दी कॉलरें
खाली जेबों में भरी चिड़चिड़ाहट, कुंठा, अकेलापन
और ज़बान में गालीयों की मीठी खुजलाहट.
भद्दी बातें, नंगे ख़याल.
घर से निकलते रास्ते, रास्तों पे रास्ते
रास्ते दर रास्ते.
पर घर को लौटने से हिचकिचाते रास्ते.
एक नौकरी के वास्ते
कई ताने, कई फितरे.
मर्द हो के क्या पाया हमने?

कभी- कभी सोचता हूँ
न होता मर्द औरत ही कोई
बुहारता ऑगन, संवारता घर.
फूलदान में रखता हर रोज़ नए फूल
दोपहर भर गुनगुनाता गीत
रात के छूटे हुए होंठो पर.
सलवटे हटता बिस्तर की
मुस्कुराता
और हर बात से अनजान
दिन भर बस बेलबुटे काड़ा करता कुसन कवर पर.
शाम होते ही एक बार फ़िर संवार लेता ख़ुद को
देखता जी भर के आईने में.
मुड़- मुड़ के लौटती नज़र जब दरवाज़े पर
गीत शाम के बदल जाते होंठो पर.
पकाता खुशी किसी के लिए चूले में
और निवाला उसके हाथो से ख़ुद खाता .
बिस्तर में छूटी तंग आधी जगह ज़न्नत होती मेरे लिए
बाहें ओढ़ के किसी की बे-फ़िक्र सो जाता.
उठता सुबह तो रात का कुछ भी याद न होता
न हर दिन एक सवाल होता

'गीलें  बालो  की खुशबू से महकती सहर
मेरे पायल की रुनझुन से जगता पी का घर'
कभी- कभी सोचता हूँ
न होता मर्द औरत ही कोई होता.
अब तक तो ब्याह के ले गया होता कोई.

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