मेरी नायिका
शरतचन्द्र की कहानियों के गाँव में
अशोक के पेड़ों की लम्बी कतारों के बीचों-बीच
सूनसान पगडंडियों पर गुजरती ......
या गर्म दोपहर में आम के बागीचे से लौटती
लाल किनारे वाली सूती धोती पहने
सांवले चेहरे पर उजली धूप लिए
कभी मिली थी तुम एक सह्फ़े पर
देखा था तुमको मूसलाधार बारिश की किसी शाम
अमरूद के बाड़े की ओर खुलते वरांडे पर
बारिश के साथ रविन्द्रनाथ के प्रेम गीतों में भीगते हुए
किसी नॉवेल में .
पर
बाद उसके ढूँढा तुम को ज़िन्दगी में
स्कूल, कॉलेज
बाज़ार, हाट
गली, मोहल्ले
राहों-चौराहों
पोखर-धारे
गाँव-शहर-महानगर, द्वारे-द्वारे
पर तुम कहीं नहीं थी.
मेले-ठेले
नाटक, नौटंकी
रामलीलाओं,जगराते
बाजे-घाजे
महफ़िल, सन्नाटे
सब जगह तुम्हारी टोह ली
पर तुम कही नहीं थी....
हिन्दू, मुस्लिम
सिख, इसाई जैन, पादरी
ब्रह्मण, क्षत्रिय
वैश्य, शु ...
गोरे , काले
सारी जातों, नसलों सब जगह तुम्हें खोजा,खंगाला
तुम्हारी सम्भावना को स्वीकारा.
पर तुम कहीं भी नहीं थी
मेरी नायिका !
शरदचन्द्र को भी तुम बस
उनकी कहानियों में ही मिली हो शायद
मेरी नायिका !
सहफ़े : पन्ना
Thursday, April 29, 2010
Friday, April 16, 2010
और क्या है अपने वजूद का हासिल
अपने होने की वजह ।
बस मौत की खुराक हैं हम और तुम।
कलेंडर में लिखी वो तारीखें जो महज़ बदला करती हैं
जिन के बदलने से दिन नहीं बदला करते
वो तारीखें हैं हम और तुम
जो कभी तवारीख नही बनती ।
किसी अफ़साने में लिखे वो हर्फ़ जो पढ़े तो जाते हैं
मगर समझे नही जाते
जिनके मानी कुछ बन नही पाते
मानी के इर्द-गिर्द बेमानी से पड़े रहते हैं ।
अफसाना नही कहते अफ़साने की ख़ामोशी जीते हैं
वो हर्फ़ हैं हम और तुम
और क्या है अपने वजूद का हासिल
अपने होने की वजह।
बस मौत की खुराक हैं हम और .........
अपने होने की वजह ।
बस मौत की खुराक हैं हम और तुम।
कलेंडर में लिखी वो तारीखें जो महज़ बदला करती हैं
जिन के बदलने से दिन नहीं बदला करते
वो तारीखें हैं हम और तुम
जो कभी तवारीख नही बनती ।
किसी अफ़साने में लिखे वो हर्फ़ जो पढ़े तो जाते हैं
मगर समझे नही जाते
जिनके मानी कुछ बन नही पाते
मानी के इर्द-गिर्द बेमानी से पड़े रहते हैं ।
अफसाना नही कहते अफ़साने की ख़ामोशी जीते हैं
वो हर्फ़ हैं हम और तुम
और क्या है अपने वजूद का हासिल
अपने होने की वजह।
बस मौत की खुराक हैं हम और .........
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