Tuesday, April 1, 2008

निवेदन

तुम दो स्पंदन मेरी कलम को शब्दों को दो प्राण प्रेम की मंद मघुर लय दो
कर पाऊं कुछ मेरी रचना जीवन हो साकार ज्ञान का ऐसा एक वर दो
तुम दो स्पंदन मेरी कलम को शब्दों को दो प्राण प्रेम की मंद मधुर लय दो

कुसुम सुमन से जो कुछ पाया कंटको ने छिना सारा
रचना व्यर्थ ना जाय तिहारी जन्म सफल कर दो

तुम दो स्पंदन मेरी कलम को शब्दों को दो प्राण प्रेम की मंद मधुर लय दो

मैं तो रहना चाहूँ ऐसे मुक्त रहे जल धारा जैसे
दिख जाय प्रतिबिम्ब स्वयं का निर्मल मन कर दो

तुम दो स्पंदन मेरी कलम को शब्दों को दो प्राण प्रेम की मंद मघुर लय दो

घोर निराशाओ ने घेरी मेरी मंजुल अभिलाषाएं
आशाओं के नभ में मुझ को दिनकर तुम कर दो

तुम दो स्पंदन मेरी कलम को शब्दों को दो प्राण प्रेम की मंद मघुर लय दो

कर पाऊं कुछ ऐसी रचना जीवन हो साकार ज्ञान का ऐसा एक वर दो
तुम दो ..

मैं और तू

मैं तो हूँ जैसे कांसे की हांडी मैं रखा सदा पानी
और तू रे छोरी पुडिया है रंग की
कभी ऐसी तो कर रे नादानी
के घुल जा इस सादे पानी मैं ऐसे
के सब को खू लगे ये पानी
देख ऐसा ना हुआ तो
तू ना रंग पाईमुझे तो
कोई और रंग लेगा मुझे अपने ही रंग में
रोएगी उस वक्क्त बैठी
कहेगी मैं फरेबी था
था मैं बैरी था
मैं तो हूँ जैसे कांसे की हांडी मैं रखा सदा पानी

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