खिड़की मेरी जिस आकाश में खुलती है
चाँद नही आता उस रस्ते
दूजे किसी आकाश से होकर
राह चाँद को मिलाती है
खिड़की मेरी जिस आकाश में खुलती है
चाँद से भी हो क्या शिकायत
चांद से भी हो क्या गिला
अंतहीन आकाश है
और अनगिनत है खिड़कीया
उस पर बेचारा
सबका प्यारा
एक अकेला चाँद
कहाँ -कहाँ जाएगा ?
हर खिड़की से होकर गुजरे
ऐसा कैसे हो पायेगा?
ख्वाहिश तो अब ख्वाहिश ही ठहरी
हर खिड़की की होती है
खिड़की जब भी, जिस आकाश पे खुलती है
उस पर जब काली स्याही, धीरे-धीरे घुलती है
हर खिड़की तब बाहें फैलाये ,चाँद की राहें तकती है
अपनी भी एक खिड़की मुई
सूने आकाश में खुलती है
चाँद नही आता उस रस्ते
बुझती-बुझती आंखो में भी
चाँद की आमद रहती है
खिड़की मेरी जिस आकाश में खुलती है
खिड़की मेरी जिस आकाश में खुलती है
चाँद नही आता उस रस्ते
दूजे किसी आकाश से हो कर राह चाँद को मिलाती है
Thursday, January 31, 2008
Wednesday, January 23, 2008
सयाना
छुटपन में
जिस मेले से चुराई थी बांसुरी, गुब्बारे
और खिलोने बहुत से
आज उसी मेले से
जी चुराता हूँ
जाने क्यों इतना सयाना हो गया हूँ
जिस मेले से चुराई थी बांसुरी, गुब्बारे
और खिलोने बहुत से
आज उसी मेले से
जी चुराता हूँ
जाने क्यों इतना सयाना हो गया हूँ
कैलेंडर
तारीख़ बदलती
फटता कैलेंडर
दिन,महीना,साल चढ़ आता
फिर एक रोज़
खूंटी में टंक जाता एक नया कैलेंडर
ज़िंदगी बदलती सिर्फ कैलेंडरों में यहाँ
ऐसे क्यों नही बदलती
जैसे मैं बदलना चाहता हूँ
जैसे तुम बदलना चाहती हो
फिर मैं महज़ कैलेंडर बदलने को बेसब्र
उस दिन का इंतज़ार नही करता
जिसे कहती हो तुम.... नया साल !
फटता कैलेंडर
दिन,महीना,साल चढ़ आता
फिर एक रोज़
खूंटी में टंक जाता एक नया कैलेंडर
ज़िंदगी बदलती सिर्फ कैलेंडरों में यहाँ
ऐसे क्यों नही बदलती
जैसे मैं बदलना चाहता हूँ
जैसे तुम बदलना चाहती हो
फिर मैं महज़ कैलेंडर बदलने को बेसब्र
उस दिन का इंतज़ार नही करता
जिसे कहती हो तुम.... नया साल !
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