Sunday, November 19, 2017





जब भी लौटता हूँ गाँव से शहर.
कुछ उतनी ही देर रहती हैं
ज़ेहन में अब  यादें गाँव की

के जितनी देर जूते के सोल में
चिपकी रहती है
गीली मिट्टी गाँव की
याद रहता है गाँव भी.

..सूख कर गिर जाती है ये मिट्टी
दूसरे ही रोज़.
और जो रह जाती है बची जूते के चमड़े पर
धूल बनकर.
उस पर पॉलिश मार कर मैं
चल देता हूँ दफ़्तर.

के शहरों में खेत नहीं होते
होते हैं दफ़्तर.
जहाँ से आती है तन्ख्वाह.
तन्ख्वाह से आता है अन्न.
जो उगता है मेरे गांव के खेतों पर.

Friday, September 13, 2013

सबक

 

(आए दिन हो रही रेप की बढ़ती की घटनाओ पर मेरे खुद के लिए है ये सबक 

अपने बच्चों को गालियाँ नहीं सिखाते हम 
फिर भी वो सीख जाते हैं देना गालियाँ
घर को बुहारना ही काफ़ी नहीं दोस्त
थोड़ा गलियाँ भी साफ़ रखिए
वगरना जूतों से चिपक कर

थोड़ी कीचड़ तो भीतर आएगी  

Saturday, June 25, 2011

पुनर्जन्म


 
बहुत पहले मर चुका था मैं
पर ख़बर इस बात की मुझे ज़रा देर से मिली
मरे हुए आदर्शों और सड़ी-गली ईमानदारी की बू ने 
जब मेरी रूह का जीना हराम  कर डाला
पता लगा ये सडन  जो मेरी साँसों में बस गई है
घर के कबाड़खाने में मरे चूहे की नहीं
ड्राइंगरूम में मरे इंसान की है.

Tuesday, November 30, 2010

हदों के पार तक फैला यहाँ बाज़ार हैं 
वाह ! इस दौर-ऐ-दिल्ली में अर्थियां भी रेडी मेड मिलती हैं
कफ़न के पीस कटे हुए, फ्री साइज़ सबके लिए
चन्दन, लकड़ी, घी अगरबत्ती, आम की फट्टी
फूल, माला, घाट तक पहुँचाने वाला
कभी भी मरो वक्क्त, बेवक्क्त 
यहाँ हर समय तैयार मिलते हैं
भाई सुविधा है मरने की! 
बस एक कॉल और फ्री होम डिलवरी.
...................विज्ञापन के इस दौर में
बिकने और बेचे जाने की इस होड़ में
वो दिन भी बस आता होगा
जब हमें बनाने होंगे
अर्थियों के ऑफर एड
एक के साथ एक फ्री
कॉम्बो पैक
फैमली पैक
सोचता हूँ क्या यहीं के लिए निकला था ?
जब घर का ऑगन छूटा था

ऐसा नहीं के मेरे गाँव में लोग नहीं मरते 
पर वहां अर्थियों के बाज़ार नहीं लगते.


हदों के पार तक फैला यहाँ बाज़ार हैं....

Wednesday, November 10, 2010

मंगलवार  को अंडे नहीं खाते हम
हाँ मगर बुद्ध को आदमी का खून पीते  हैं.

गालियाँ देना? हुनर ये तहज़ीब ने हमें गवारा ना किया.
हम तो वो हैं जो निगाहों से कपढ़े उतार देते हैं.

सब माँ-बहने हैं मेरी, मेरी बीबी को छोड़ के,
फिर भी आदत कि जेब में हर वक़्त कॉन्डोम रखते हैं


मंगलवार को अंडे नहीं खाते हम

हाँ मगर बुद्ध को आदमी का खून पीते हैं.

Thursday, April 29, 2010

मेरी नायिका


शरतचन्द्र की कहानियों के गाँव में
अशोक के पेड़ों की लम्बी कतारों के बीचों-बीच

सूनसान पगडंडियों पर गुजरती ......

या गर्म दोपहर में आम के बागीचे से लौटती
लाल किनारे वाली सूती धोती पहने
सांवले चेहरे पर उजली धूप लिए
कभी मिली थी तुम  एक सह्फ़े पर

देखा था तुमको मूसलाधार बारिश की किसी शाम
अमरूद के बाड़े की ओर खुलते वरांडे पर

बारिश के साथ रविन्द्रनाथ के प्रेम गीतों में भीगते हुए
किसी नॉवेल में .

पर
बाद उसके ढूँढा तुम को ज़िन्दगी में

स्कूल, कॉलेज
बाज़ार, हाट

गली, मोहल्ले
राहों-चौराहों
पोखर-धारे

गाँव-शहर-महानगर, द्वारे-द्वारे
पर तुम कहीं नहीं थी.


मेले-ठेले
नाटक, नौटंकी
रामलीलाओं,जगराते
बाजे-घाजे
महफ़िल, सन्नाटे
सब जगह तुम्हारी टोह ली
पर तुम कही नहीं थी....

हिन्दू, मुस्लिम
सिख, इसाई जैन, पादरी
ब्रह्मण, क्षत्रिय
वैश्य, शु ...
गोरे , काले
सारी जातों, नसलों सब जगह तुम्हें खोजा,खंगाला
तुम्हारी सम्भावना को स्वीकारा.

पर तुम कहीं भी नहीं थी
मेरी नायिका !

शरदचन्द्र को भी तुम बस
उनकी कहानियों में ही मिली हो शायद

मेरी नायिका !



सहफ़े : पन्ना

Friday, April 16, 2010

और क्या है अपने वजूद का हासिल

अपने होने की वजह ।

बस मौत की खुराक हैं हम और तुम।


कलेंडर में लिखी वो तारीखें जो महज़ बदला करती हैं

जिन के बदलने से दिन नहीं बदला करते

वो तारीखें हैं हम और तुम

जो कभी तवारीख नही बनती ।

किसी अफ़साने में लिखे वो हर्फ़ जो पढ़े तो जाते हैं

मगर समझे नही जाते

जिनके मानी कुछ बन नही पाते

मानी के इर्द-गिर्द बेमानी से पड़े रहते हैं ।

अफसाना नही कहते अफ़साने की ख़ामोशी जीते हैं

वो हर्फ़ हैं हम और तुम

और क्या है अपने वजूद का हासिल

अपने होने की वजह।

बस मौत की खुराक हैं हम और .........

हिन्दी में लिखिए