Sunday, November 19, 2017





जब भी लौटता हूँ गाँव से शहर.
कुछ उतनी ही देर रहती हैं
ज़ेहन में अब  यादें गाँव की

के जितनी देर जूते के सोल में
चिपकी रहती है
गीली मिट्टी गाँव की
याद रहता है गाँव भी.

..सूख कर गिर जाती है ये मिट्टी
दूसरे ही रोज़.
और जो रह जाती है बची जूते के चमड़े पर
धूल बनकर.
उस पर पॉलिश मार कर मैं
चल देता हूँ दफ़्तर.

के शहरों में खेत नहीं होते
होते हैं दफ़्तर.
जहाँ से आती है तन्ख्वाह.
तन्ख्वाह से आता है अन्न.
जो उगता है मेरे गांव के खेतों पर.

2 comments:

अरुण चन्द्र रॉय said...

वाह . अधूरी सी नज़्म में पूरा नजरिया

Mukul Upadhyay said...


शुक्रिया अरुण जी. आपके कमेंट का छोर पकड़ के कविता प्लेटफार्म १६ तक पहुंचा, अच्छी लगी

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