Monday, July 27, 2009

चुप सी रहती हो!

तुम कैसी खीज उतारती हो
बेगुनाह गैस के चूल्हे पर
जब सब्जी जल जाती है तुम्हारी
और तुम्हें कितना गुस्सा आता है
जब आटा वो गीला हो जाता है तुम्हारा
तेज़ हवा जब छू कर निकलती है तुम्हें
तुम्हारा दुपट्टा सरका जाती है
कमीज़ तुम्हारी हवाओं में लहरा जाती है
तुम उस पर भी कुछ बुदबुदाती हो मुंह ही मुंह में
पर तुम कितनी चुप सी रहती हो
कुछ भी नहीं कहती हो उनको
जो पूछते है तुमसे
घर से बस बहार ही निकलने पर
कहाँ जाती हो?
क्यूँ?
किसलिए?
तुम उन से तो कभी कुछ नहीं कहती हो!
उन मान्यताओं, परम्पराओं,धर्म और समाज को
जिन्होंने तुम्हें
तुम्हारे ड्राइंग रूम का शो-पीस भर बना कर रख दिया है
जिन्होंने तुम्हें तुम्हारी रसोई का बर्तन
चारपाई पर पड़ा बिस्तर
और किसी खूंटी पर टंके तौलिये के माफ़िक
सुविधाजनक बना दिया है
तुम उन से तो कभी कुछ नहीं कहती हो !
तुम उनसे कभी कुछ क्यूँ नहीं कहती हो?
नल से कहती हो, पानी से कहती हो
झाड़ू से कहती हो, कूड़े से कहती
सुई-धागे, कील-हथौड़े से कहती हो
परदे, चादर, गद्दे, लिहाफ़
सर्फ़, साबुन, दाग
सबसे झगड़ती हो
राशन, नून, तेल, चाय, शक्कर
जीरा, अजवाइन, आटे-दाल
सब पे बिगड़ती हो
और कभी-कभी तो मैंने तुम्हें
जली हुई रोटी को
हाँ रोटी को!
ओह शिट! कहते हुए भी सुना है
कहो ना मैंने सच ना कहा है ?
गैस सिलेंडर ने खाई है सुबह-सुबह गलियाँ तुम्हारी
वक़्त से पहले जब गैस ''हवा'' हुआ है
कभी साड़ी पे, कभी सेंडिल पे सवार रहती हो
कभी पायल, कभी झुमके से नाराज़ रहती हो
बालों पे झुंझलाती हो कंघे को आँख दिखाती हो
घर, दीवार, खिड़की, रौशनदान
सूरज, बादल, हवा, पानी
गीत, गजल, नज़्म, कहानी
सबने सुनी हैं झिडकें तुम्हारी
पर जहाँ बोलना होता है तुम्हें इतना भर
कि उन्हें सुनाई दे सके
तुम कितनी चुप सी रहती हो!
तुम उनसे कभी कुछ क्यूँ नहीं कहती हो?

Thursday, June 25, 2009

ज़िन्दगी


प्याले में ठहरी चाय में
अपने ही अक्श को घूरना
घूँट -घूँट पीना तन्हाई.
घूँट -घूँट कुंठाओ का थूक निगलना.
सिगरेट को होंठ जलने तक चूसना.
कहाँ हो तुम ?
दीवार में चिपके रोबदार स्वामी विवेकानंद
जहाँ भी जाता हूँ मुझे ही देखते है.
मैं आखें झुका लेता हूँ.
अपने भीतर ताकत नहीं पाता.
कहाँ हो तुम ?
चिपचिपी गर्म दोपहर में
गंजी पहन के अपने कमरे में छटपटा रहा हूँ
इधर-से उधर.
दीवार पर टंका सीसा
देखा हुआ सा लगता है कुछ.
खुद से जाने क्या-क्या बड़बड़ाता हूँ.
समझता मैं तो वो भी समझ ही जाता
सीसे के उस ओर वाला आदमी भी
अब सन्दर्भहीन मेरी बातें
नहीं सुनता.
ट्रांजिस्टर पर पुराने फ़िल्मी गीत बज रहे हैं
चाहते है कोई सुने उनको .
कहाँ हो तुम ?
बाहर गर्मी है बहुत
और अन्दर सब कुछ सूख रहा है .
अब देर ना करो ज़िन्दगी ! आओ ज़ल्दी.



Wednesday, May 20, 2009

मैं और क्राइस्ट.

रात सो रही थी जब दुनिया सारी
मैं था जो बस जाग रहा था ।
अपने गम के साथ ऊँघ रहा था।
रात ये साली घंटा-घंटा होती काली।
कालिख इसकी छुड़ा रहा था।
रात सो रही थी जब दुनिया सारी
मैं था जो बस जाग रहा था।
तभी चर्च की घटी बजी
और क्राइस्ट ने बारह बजा कर कहा जाग रहे हो!
जाग रहे हो तुम भी!
जाग रहे हो! क्या थोड़ा-थोड़ा गम आपस में बाट रहे हो!
मैं भी तो हूँ साथ तुम्हारे जो जाग रहा हूँ।
मैं भी तो हूँ साथ तुम्हारे जो सदियों से ऊँघ रहा हूँ।
रात सो रही थी जब दुनिया सारी
मैं और क्राइस्ट जाग थे
गम आपस में बाट रहे थे ।
मैंने अपने सारे गम तब क्राइस्ट से बदल लिए थे ।



रात सो रही थी जब दुनिया सारी मैं और क्राइस्ट जाग रहे थे।

Monday, May 4, 2009

मर्द

कभी- कभी सोचता हूँ
न होता मर्द औरत ही कोई होता
अब तक तो ब्याह के ले गया होता कोई
.....................
के अपने पैरों पर अपना वज़न अब और ढोया नहीं जाता
खलता है बहुत मुद्दत से बस यूँ होना
अपनी आहों में अपने ही दर्द का रोना
अपनी धड़कन में अपनी ही साँसों का खोना।
खलता है बहुत मुद्दत से बस यूँ होना ।
कभी- कभी सोचता हूँ
न होता मर्द औरत ही कोई होता
सौंप के ख़ुद को किसी के जिम्मे
अपने वजूद से हल्का हो गया होता.
बहुत भारी है ये मर्दानगी का पत्थर दोस्त!
उठाये नहीं उठता जब
रोने को जी चाहता है.
कभी- कभी सोचता हूँ
न होता मर्द औरत ही कोई होता
किसी काँधे पे सारी उम्र का दर्द
सिसक-सिसक के रो देता.
कभी- कभी सोचता हूँ
न होता मर्द......
झूठा है ये मर्दानगी का गुरूर दोस्त!
मर्द हो के क्या पाया हमने?
बदन से उठती महक-ऐ-शराब।
निकोटिन के पानी चढ़े स्याह लब
आँखों में नशे के शुर्ख रंग.
हर तरफ़ धुंध ही धुंध.
मैली आश्तीनें , गन्दी कॉलरें
खाली जेबों में भरी चिड़चिड़ाहट, कुंठा, अकेलापन
और ज़बान में गालीयों की मीठी खुजलाहट.
भद्दी बातें, नंगे ख़याल.
घर से निकलते रास्ते, रास्तों पे रास्ते
रास्ते दर रास्ते.
पर घर को लौटने से हिचकिचाते रास्ते.
एक नौकरी के वास्ते
कई ताने, कई फितरे.
मर्द हो के क्या पाया हमने?

कभी- कभी सोचता हूँ
न होता मर्द औरत ही कोई
बुहारता ऑगन, संवारता घर.
फूलदान में रखता हर रोज़ नए फूल
दोपहर भर गुनगुनाता गीत
रात के छूटे हुए होंठो पर.
सलवटे हटता बिस्तर की
मुस्कुराता
और हर बात से अनजान
दिन भर बस बेलबुटे काड़ा करता कुसन कवर पर.
शाम होते ही एक बार फ़िर संवार लेता ख़ुद को
देखता जी भर के आईने में.
मुड़- मुड़ के लौटती नज़र जब दरवाज़े पर
गीत शाम के बदल जाते होंठो पर.
पकाता खुशी किसी के लिए चूले में
और निवाला उसके हाथो से ख़ुद खाता .
बिस्तर में छूटी तंग आधी जगह ज़न्नत होती मेरे लिए
बाहें ओढ़ के किसी की बे-फ़िक्र सो जाता.
उठता सुबह तो रात का कुछ भी याद न होता
न हर दिन एक सवाल होता

'गीलें  बालो  की खुशबू से महकती सहर
मेरे पायल की रुनझुन से जगता पी का घर'
कभी- कभी सोचता हूँ
न होता मर्द औरत ही कोई होता.
अब तक तो ब्याह के ले गया होता कोई.

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