Thursday, June 25, 2009

ज़िन्दगी


प्याले में ठहरी चाय में
अपने ही अक्श को घूरना
घूँट -घूँट पीना तन्हाई.
घूँट -घूँट कुंठाओ का थूक निगलना.
सिगरेट को होंठ जलने तक चूसना.
कहाँ हो तुम ?
दीवार में चिपके रोबदार स्वामी विवेकानंद
जहाँ भी जाता हूँ मुझे ही देखते है.
मैं आखें झुका लेता हूँ.
अपने भीतर ताकत नहीं पाता.
कहाँ हो तुम ?
चिपचिपी गर्म दोपहर में
गंजी पहन के अपने कमरे में छटपटा रहा हूँ
इधर-से उधर.
दीवार पर टंका सीसा
देखा हुआ सा लगता है कुछ.
खुद से जाने क्या-क्या बड़बड़ाता हूँ.
समझता मैं तो वो भी समझ ही जाता
सीसे के उस ओर वाला आदमी भी
अब सन्दर्भहीन मेरी बातें
नहीं सुनता.
ट्रांजिस्टर पर पुराने फ़िल्मी गीत बज रहे हैं
चाहते है कोई सुने उनको .
कहाँ हो तुम ?
बाहर गर्मी है बहुत
और अन्दर सब कुछ सूख रहा है .
अब देर ना करो ज़िन्दगी ! आओ ज़ल्दी.



1 comment:

Deepak Tiruwa said...

एक खला नज़र में है ....सन्नाटा कोहरे की सूरत पसरा हुआ ....
जिस्म के खाली बर्तन में भरी हुई बोसीदगी है ...जिंदगी कहाँ हो तुम...?

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