हदों के पार तक फैला यहाँ बाज़ार हैं
वाह ! इस दौर-ऐ-दिल्ली में अर्थियां भी रेडी मेड मिलती हैं
कफ़न के पीस कटे हुए, फ्री साइज़ सबके लिए
चन्दन, लकड़ी, घी अगरबत्ती, आम की फट्टी
फूल, माला, घाट तक पहुँचाने वाला
कभी भी मरो वक्क्त, बेवक्क्त
यहाँ हर समय तैयार मिलते हैं
भाई सुविधा है मरने की!
बस एक कॉल और फ्री होम डिलवरी.
...................विज्ञापन के इस दौर में
बिकने और बेचे जाने की इस होड़ में
वो दिन भी बस आता होगा
जब हमें बनाने होंगे
अर्थियों के ऑफर एड
एक के साथ एक फ्री
कॉम्बो पैक
फैमली पैक
सोचता हूँ क्या यहीं के लिए निकला था ?
जब घर का ऑगन छूटा था
ऐसा नहीं के मेरे गाँव में लोग नहीं मरते
पर वहां अर्थियों के बाज़ार नहीं लगते.
हदों के पार तक फैला यहाँ बाज़ार हैं....
15 comments:
हदों के पार तक फैला यहाँ बाज़ार हैं...
क्या कहें बाज़ारीकरण का दौर है... सब कुछ बिकता है... बेचने की कला आनी चाहिये बस... उम्दा लेखन !
"डैडी" फिल्म का गाना याद आ गया -
"मेरा फ़न फिर मुझे बाज़ार में ले आया है
ये वो जगह के जहाँ मेहर-ओ-वफ़ा बिकते हैं
बाप बिकते हैं और लख़्त-ए-जिगर बिकते हैं
कोख बिकती हैं, दिल बिकते हैं, सर बिकते हैं
इस बदलती हुई दुनिया का ख़ुदा कोई नहीं
सस्ते दामो में हर रोज़ ख़ुदा बिकते हैं"
बाज़ार के बढ़ते प्रभाव पर सुन्दर कविता..
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (2/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
Richa,Roy Sahab aur vandana ji meri baat aap tak utari, aapne samay diya meri bhavnao ko ...Shukriya!
बाज़ार पर सुन्दर अभिव्यक्ति
mukul....
badi shiddat se ye dard mujhe bhi mehsoos hota hai dost..khair mujhe to roz ek aisi dukaan ke samne se guzrna bhi hota hai ..
"yahaan antim sanskar ka samaan milta hai "
bazaaar aadmi ke bheetar kitna ghus chuka hai yah saaf dikh raha hai nazm men ...
सुन्दर कविता..
बेहतरीन!
ऐसा नहीं के मेरे गाँव मेंलोग नहीं मरते
पर वहां अर्थियों के बाज़ार नहीं लगते.
सत्य सिर्फ सत्य..... बधाई,
मार्केटिंग की कला सीखने का जरूरी हिस्सा होता है..नये आइडिये तलाशना..यानि कि उन उन अँधेरे कोनों को व्यावसायिक बुद्धि की रोशनी मे लाना..जहाँ तक अभी बाजार की नजर न गयी हो..गाँव के लिये अंतिम-संस्कार एक भावनात्मक प्रक्रिया है..मगर एक चतुर शहर के लिये वही अतीव संभावना से भरा बाजार है..मुनाफ़े का भावी स्रोत..गाँव भावुक होता है..और भावुकता को ’कैश’ कराने की कला नही आती उसे..इसलिये पिछड़ा होता है..
बाजारीकरण किस तरह मौत के बाद भी हमारा पीछा नही छोडता..आपकी कविता यह बताती है..
bohot dumdaar nazm hai dost...kya comment kiya ja sakta hai ispar, mere bas ki baat nahin...too good
Atul prakash trivedi ji,Dost Swapnil. Zeal, Yashwant. Dev Apoorv Aur Sanjh.aap sabhi ki sakaratmak tippadhiyan aaghe aur likhane ki urja dengi...Danyavaad
कांसेप्ट बहुत अपील करता है कविता का....बाज़ार की नब्ज़ को टटोलता हुआ ...आपकी काबिलियत के मुताबिक ओर निखार आ सकता था ...
Dr. sahab aap ki baat se ittefaaq hai par....ab Ma ka ye bachha kuchh aisa hi paida hua, ab jo hai voh yahi hai.....umeed hai aapni koshish mein main kahi toh pahuncha hunga...aapne meire phan pe yakeen jataya...shukriya.!
Kya kahun...
kandhon par lashe nahijati.. bdkismat wo hotae hai.. jinhe kandha tak nashib nahi hota hai...
Gaonme me arthiyan nahi hoti.. par kuch log arthiyon ke saman bhi bechte nazar aatey hai...
sahar ke is bhgdaur bhari jindgi me loshoen ke liye arthiyan banane ka waqt kahan.. badnashib wo hotey hain jinhe arthiya tak nahi milti..
marne se pahle log khud hi apni antim sanskar ke liye saman chor jata hai... ye jate hue kahta hai.. mujhe arthiyan jarur la dena nahi to apno ke kandhe tak nashib nahi hoga... kyoki badnashib wo hotey hain jinhe kandhe tak nashib nahi hotey hai.
thanks
www.roysahab.co.in
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