Monday, November 5, 2007

तनहा

कितना तनहा सा महसूस करता हूँ मैं खुद को
जब मैं टाकता हूँ

खुद अपनी कमीज के बटन
बटन जो तुम्हारी शरारतों से नही चटके है
टूटे है खुद मेरी ही कुंठाओं से
कितना तन्हा सा महसूस करता हूँ मैं खुद को ......
....और धूप मैं बैठी जब तुम पन्ने पलटती हो मैगजीन के
तुम भी कितनी अकेली हो गयी सी लगाती हो
सूखे पन्नों पर लिखी कहानिया पड़ती हो
कहानिया जो तुम्हारी जैसी तो है
पर तुम्हारी नही है वो कहानिया


सोचता हूँ कभी अपनी dairy से निकल कर
तुम्हारी मैगज़ीन कि कहानियो मैं आ जाऊ
वहाँ जहाँ एक लड़का जो मेरे जैसा तो है

पर मैं नही हूँ
वहाँ चलूँ

और सोचता हूँ कभी आओ तुम
और मेरी कमीज़ के कुछ बटन जड़ दो

और कुछ बटन झिटक कर शरारत में
तोड़ती जाओ
जिन्हें फिर कभी जड़ना बाकी रहे
तुम से मिलना हमेशा बाकी रहे ।

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