कितना तनहा सा महसूस करता हूँ मैं खुद को
जब मैं टाकता हूँ
खुद अपनी कमीज के बटन
बटन जो तुम्हारी शरारतों से नही चटके है
टूटे है खुद मेरी ही कुंठाओं से
कितना तन्हा सा महसूस करता हूँ मैं खुद को ......
....और धूप मैं बैठी जब तुम पन्ने पलटती हो मैगजीन के
तुम भी कितनी अकेली हो गयी सी लगाती हो
सूखे पन्नों पर लिखी कहानिया पड़ती हो
कहानिया जो तुम्हारी जैसी तो है
पर तुम्हारी नही है वो कहानिया
सोचता हूँ कभी अपनी dairy से निकल कर
तुम्हारी मैगज़ीन कि कहानियो मैं आ जाऊ
वहाँ जहाँ एक लड़का जो मेरे जैसा तो है
पर मैं नही हूँ
वहाँ चलूँ
और सोचता हूँ कभी आओ तुम
और मेरी कमीज़ के कुछ बटन जड़ दो
और कुछ बटन झिटक कर शरारत में
तोड़ती जाओ
जिन्हें फिर कभी जड़ना बाकी रहे
तुम से मिलना हमेशा बाकी रहे ।
4 comments:
i like this one. Very insightful.
wah.......
bahut badhiyaa!!!
kya baat hai sir ....bahoot khoob
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