खिड़की मेरी जिस आकाश में खुलती है
चाँद नही आता उस रस्ते
दूजे किसी आकाश से होकर
राह चाँद को मिलाती है
खिड़की मेरी जिस आकाश में खुलती है
चाँद से भी हो क्या शिकायत
चांद से भी हो क्या गिला
अंतहीन आकाश है
और अनगिनत है खिड़कीया
उस पर बेचारा
सबका प्यारा
एक अकेला चाँद
कहाँ -कहाँ जाएगा ?
हर खिड़की से होकर गुजरे
ऐसा कैसे हो पायेगा?
ख्वाहिश तो अब ख्वाहिश ही ठहरी
हर खिड़की की होती है
खिड़की जब भी, जिस आकाश पे खुलती है
उस पर जब काली स्याही, धीरे-धीरे घुलती है
हर खिड़की तब बाहें फैलाये ,चाँद की राहें तकती है
अपनी भी एक खिड़की मुई
सूने आकाश में खुलती है
चाँद नही आता उस रस्ते
बुझती-बुझती आंखो में भी
चाँद की आमद रहती है
खिड़की मेरी जिस आकाश में खुलती है
खिड़की मेरी जिस आकाश में खुलती है
चाँद नही आता उस रस्ते
दूजे किसी आकाश से हो कर राह चाँद को मिलाती है
3 comments:
good one!
thanks.
चाँद की मजबूरियां और अपनी हसरत...?
आह....!
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