Thursday, January 31, 2008

खिड़की मेरी

खिड़की मेरी जिस आकाश में खुलती है
चाँद नही आता उस रस्ते
दूजे किसी आकाश से होकर
राह चाँद को मिलाती है
खिड़की मेरी जिस आकाश में खुलती है


चाँद से भी हो क्या शिकायत
चांद से भी हो क्या गिला
अंतहीन आकाश है

और अनगिनत है खिड़कीया

उस पर बेचारा
सबका प्यारा
एक अकेला
चाँद
कहाँ -कहाँ जाएगा ?
हर खिड़की से होकर गुजरे

ऐसा कैसे हो पायेगा?

ख्वाहिश तो अब ख्वाहिश ही ठहरी
हर खिड़की की होती है
खिड़की जब भी, जिस आकाश पे खुलती है
उस पर जब काली स्याही, धीरे-धीरे घुलती है
हर खिड़की तब बाहें फैलाये ,चाँद की राहें तकती है


अपनी भी एक खिड़की मुई
सूने आकाश में खुलती है
चाँद नही आता उस रस्ते
बुझती-बुझती आंखो में भी
चाँद की आमद रहती है

खिड़की मेरी जिस आकाश में खुलती है


खिड़की मेरी जिस आकाश में खुलती है
चाँद नही आता उस रस्ते
दूजे किसी आकाश से हो कर राह चाँद को मिलाती है

3 comments:

Rosh said...

good one!

Anonymous said...

thanks.

Deepak Tiruwa said...

चाँद की मजबूरियां और अपनी हसरत...?
आह....!

हिन्दी में लिखिए