Friday, November 23, 2007

सोंधी खुशबु

वक्क्त जो अपने पांव में बांध के बैरिंग
दौड़ता रहता है सुबह से शाम तलक
वक्क्त वही देख यहाँ नंगे पाँव कैसे आहिस्ता क़दमों से चलता है

सड़क के पास खड़े एक खच्चर कि दुम
यूं हिलती है बराबर किसी पुर्जे के माफ़िक
जैसे वक्क्त की मशीन का कोइ पेंडुलम हिलता है।
खट-पट, खट-पट कि आवाजें करती चक्की एक चलती है
अपने मुहँ में भरती है अनाज मुसलसल और उगलती है
दिन भर ये चक्की देख गाँव भर के हिस्से की जुगाली करती है।


अपनी मेहनत को और महीन पिसवा कर
सर में रख के राशन का थेला .
सड़क से उतरती पगडण्डी पर लड़की एक गुज़रती है
जुल्फ इसकी तेरी जुल्फ सी रेशमी नही
ना ही लिबास ही है इतना कीमती
सादगी इस लड़की कि दिल में मेरी उतरती है
देखना चाहती भी हो मुड़ कर मुझ अजनबी का चेहरा एक बार
कहाँ मगर इतनी सी भी हिम्मत ये रखती है।

दूर तक फैले खेतों में हरा रंग सब्ज़ है इतना

इतना ताज़ा है
कि लगता है ऐसे
छुआ जो हाथ से
तो कच्ची फसलों का ये रंग

उंगलियों के पोरों पर चिपक जाएगा
नदी जो ये उफनती है

चल नही पाती ढंग से
गिरती है लुड़कती है
पिछली बारिश से ही इसने
बहुत जो पी रक्खी है
इन नदी, नालों, खेतों,जंगलों में जब मैं टहल रह था
मैं बैठ अद्धक्च्ची फसलों से जब बतिया रहा था
किस्से तेरे-मेरे इन्हें सुना रहा था
हर बात में मेरी तब

ज़िक्र तेरा आ रहा था
फिर नदी जब शोख पूछ ही बैठी ...
... कि "इस गोल पत्थर मैं आधी जगह किस के लिए छोड़ के बैठे हो "
... नाम तेरा बताते उसे बहुत मैं शरमा रहा था

नदी ने कब जाने मुझ से सुना जो नाम तेरा
वो खेतों को बता दिया
राज मेरे दिल का उसने फसलों को भी सुना दिया
नन्ही फसलों ने हँसते -हँसते
पास से गुजरती पगडण्डीयों के कानो में जाने क्या कहा
सारे गाँव में बात फ़ैल गई है, तुझे क्या पता!
पगडण्डीयौं ये जंगलो तक जाती है
जंगल में पेड़ आपस में खुशपुशा रहे है कुछ
हवाएं जो उठती है इन पेड़ों से
कभी मेरा नाम पुकारती है जोरों से
और कभी तेरा नाम फूक कर कानो में दौड़ लगाती है।


सुबह जब तड़के लौट रह था मैं
गाँव की सड़के, नदियाँ पहाड़, जंगल, खेत और फसलें
सब रास्ता रोक रहे थे
कहते थे "आओगे जब अगली बारी
साथ में उसको भी लेते आना"
बगेर उसके तुम उदास से रहते हो
उदास तुम अच्छे नही लगते .

2 comments:

Anonymous said...

hi mukul,
i do.nt need your formal introduction. kyonki mei wo hu, jo gawah hai is dard se, khushiyon se, muskurahaton se, aansuo se bhari pagdandi ka jin pe tum....hum kisi na kisi tarah saath hi chale hain. meine hi in nazmon ko garbh me palte hue dekha hai.maine inhe janm lete hue dekha hai. inki jawani bhi dekhi hai maine. ab to pahchan hi gaya hoga ki main kaun hun.

manu said...

कि "इस गोल पत्थर मैं आधी जगह किस के लिए छोड़ के बैठे

bahut sunder lagaa....

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